अर्जुन लाल 'कवि' ब्रज-क्षेत्र (करौली : राजस्थान) में एक दलित-परिवार में जन्मे एक ऐसे प्रौढ़ कवि हैं जो अपने श्रम और संघर्ष से समकालीन रचना-कर्म में अपनी उल्लेखनीयता हासिल कर चुके हैं। बहत्तर की उम्र तक जिया यह लोकप्रिय कवि अपनी विषय-वस्तु, अंतर्दृष्टि, चिंताओं और काव्य-भाषा में हमारे नितांत समकालीन-युवा-कवियों से टक्कर लेता नजर आता है। इस कवि ने अपने श्रम और संघर्ष से अपनी सामाजिक और पारिवारिक नियति के चौखटों को तोड़कर नई और व्यापक जीवन-भूमि की तलाश की है। अपने इलाके के घोर सामंती और पुरातनपंथी परिदृश्य में अपनी विशिष्ट उपस्थिति और पहचान बनाने की प्रक्रिया में धीरे-धीरे 'कवि' उपनाम अर्जुन लाल के साथ जुड़ता चला गया। धीरे-धीरे 'लाल' गायब होता चला गया और वे अर्जुन कवि के नाम से पूरे इलाके में जाने जाने लगे। इस 'कवि' के जुड़ने का एक और रहस्य भी है। दरअसल रहस्य भी नहीं; हमारे समाज की घृणित जातिवादी पूर्वावधारणाएँ इसके मूल में हैं। शूद्र वर्ण की निकृष्ट सामाजिक योनि में; जिसके लिए पुस्तक छूना तो बहुत दूर, पुस्तक-चर्चा तक निषिद्ध हो; कोई व्यक्ति कला या कवि-कर्म में अपनी रुचि प्रदर्शित करे; यह एक हिमाकत ही तो है। इस हिमाकत की सजा यही तो हो सकती थी कि सरे-राह आप पर गोबर के फूल बरसाए जाएँ, आपको सुना-सुनाकर आपके नीच खानदान का इतिहास-भूगोल सार्वजनिक किया जाए और मौका लग जाए तो आपकी डायरी या कविताओं की कॉपी ही गुल कर दी जाए! ऐसे प्रतिक्रियावादी और ठस माहौल में आदमी का जिद्दी हो आना स्वाभाविक है। इसी जिद में कई बार संभावनाएँ निहित होती हैं या ऐसा लगने लगता है कि हो सकती हैं। इसी प्रक्रिया में 'कवि' उपमान अर्जुन लाल का पर्याय बनता चला गया। यह प्रक्रिया इस बात की मिसाल है कि हमारे इस कथित हिंदू-समाज में जातिवादी पूर्वाग्रहों की जड़ें अभी भी कितनी गहरी हैं और अपनी अस्तित्व-रक्षा के लिए एक दलित-वर्ग से जुड़े व्यक्ति को कैसी-कैसी जहालत से गुजरना पड़ता है।
लेकिन इस व्यक्तिगत जिद के साथ-साथ इस कवि के व्यक्तित्व में एक ऐसी सार्वजनिक चिंतनशीलता भी है जो इसे एक ऐसे उच्च वैचारिक धरातल पर लाती है, जहाँ से नीचे और अगल-बगल देखने पर चीजें अपने समूचे तंतु-जाल के साथ साफ-साफ नजर आने लगती हैं। कवि की व्यक्तिगत जिद ने उसमें एक तल्खी या तुर्शी का सूत्रपात किया तो इस सार्वजनिक चिंतनशीलता ने एक व्यापक मानवीय चेतना और अंतर्दृष्टि उसे दी। तल्खी या तुर्शी आगे चलकर एक फटकार-भरी व्यंग्यात्मक काव्य-भाषा में तब्दील हुई और व्यापक मानवीय चेतना और अंतर्दृष्टि निखालस जनोन्मुखता में; जिसके भीतर मार्क्सवादी दिल धड़कता है। दोहे जैसा काव्य-रूप इन दोनों को अपने चोखटे में अँटाने में जब आनाकानी करने लगा तो उस चोखटे को आड़ा-तिरछा और ढीलाढाला करके उन्होंने अपना काम चलाया; हालाँकि धीरे-धीरे इस ढीले-ढाले पन को उन्होंने दुरुस्त करने का अभ्यास डाल लिया। भाषा और व्याकरण की चौहद्दियों को हमेशा ही उन्होंने उलाँघा और जब जैसी वाणी जबान पर आ गई; उन्होंने उसे प्रसारित हो जाने दिया; इस बात की बिना कोई परवाह किए कि विद्वत्-समाज उसे मान्यता देगा कि नहीं! बिल्कुल कुछ इस तरह जैसे चौपाल पर बैठा कोई बुज़ुर्ग अपने जीवनानुभवों का निचोड़ अपने समवयस्कों और नौजवानों को समझा रहा हो। अर्जुन कवि जैसे एक अंतहीन वार्तालाप या संवाद भारतीय आम जनता से करते चल रहे हों! इस वार्तालाप में एकदम अपने घर के आँगन से लेकर समूचे विश्व का हाल-चाल और नेकी शामिल होती है। कवि की निगाह सामने क्षितिज और पूरे परिदृश्य पर है और उसके जो अक्स उसके दिल पर उभरते हैं, उन्हें वह अपने समक्ष उपलब्ध व्यक्ति के समक्ष हाथ के हाथ रखता चलता है। कहीं कोई बनावट, सुगढ़ता, सायासता नहीं। अर्जुन कवि दोहे लिखते नहीं; कहते हैं। और कुछ इस तरह जैसे यह दिनचर्या का एक स्वाभाविक हिस्सा हो! दोहे लिखने के लिए उनके घर कोई मेज-कुर्सी नहीं लगी है। कथित बुद्धिजीवी कवियों की तरह लिखने-पढ़ने का कोई ताम-झाम नहीं। रमते जोगी और बहते पानी की तरह हर समय हर जगह उनकी रचनाशीलता सक्रिय रहती है। घर पर हों और कोई दोहा ध्यान में आ गया तो बैठक खाने में बिछी दरी पर बैठ जाएँगे और बच्चों के स्कूलवाली कॉपी खुल जाएगी। कहीं बाहर, बाजार इत्यादि में होंगे तो जेब में कागज का जो भी पुर्जा होगा; दोहा उसी पर उतरता चला जाएगा। बाद में जब फुरसत मिलेगी; ये सारे दोहे एक मोटे रजिस्टर में उतरते चले जाएँगे। मतलब यह कि लेखन की क्रिया और प्रक्रिया इतनी सादा और सहज और सुगम कि देखने वाले को रश्क हो आए! उनकी पहली श्रोता उनकी पत्नी होती थीं जो छाया की तरह उनके साथ लगी होती थीं। उनकी पत्नी सोनी उनकी उत्तर-बेला तक एक तरह से उनकी फ्रेंड भी थीं, फिलॉस्फर भी और गाइड भी। उनकी प्रतिक्रिया कई दोहों की नियति निर्धारित करती थी।
अर्जुन कवि दलित-वर्ग से जुड़ा होने पर भी दलितवाद का पक्ष नहीं लेते बल्कि उसकी सीमाएँ उजागर करते हैं। जिस तेजी और तल्खी से ब्राह्मणवाद की आलोचना वे करते हैं उससे ज्यादा तेजी और तल्खी से चमारवाद की लानत-मलामत वे करते हैं। हाँ, दलित-जीवन की पीड़ा, अभाव, दैन्य, सामाजिक अन्याय, अवमानना आदि की स्थितियाँ वहाँ भरपूर हैं। और इन स्थितियों के साथ-साथ अपनी अस्मिता की रक्षा, सामाजिक समानता और न्याय के लिए संघर्ष, आत्म-विस्तार इत्यादि की मंशाएँ भी वहाँ अंतर्निहित हैं। राज्य और समूची मौजूदा व्यवस्था का धिक्कार इस संदर्भ में अनेकानेक दोहों में यहाँ देखा जा सकता है :
राजन तेरे राज कौ, बिन पै का अहसान।
जिन जन धन धरती नहीं, जीवैं स्वान समान।।
अर्जुन कवि का दलित-विमर्श एक समग्र जनवादी क्रांतिकारिता का हिस्सा है। प्रचलित दलित-विमर्श की तरह वे किसी अलगाववाद से ग्रस्त नहीं हैं। अर्जुन कवि इस महादेश की अंतहीन गरीबी, अशिक्षा, अस्वास्थ्य, बेरोजगारी, बेइंसाफी, राजनीतिक एवं सामाजिकार्थिक असमानता, ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर तक फैला शोषक एवं भ्रष्ट राज्य एवं पूँजी-तंत्र, जीवन के प्रायः हर क्षेत्र में बहुत अंदर तक समा गई बेहयाई और मूल्य-हीनता और इस सब में कोढ़ में खाज की तरह नए सिरे से पैदा हुआ तत्व एवं संप्रदायवाद; इन सबको; अपनी ईमानदार चिंता का विषय बनाते हुए अपने समकाल को उसके पूरे-समूचेपन में लेते हैं। तय है कि समय के सबसे अधिक, सबसे तेज और मर्मभेदी थपेड़े उस तबके को लगते हैं जो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, आदि हर मोर्चे पर सबसे अभावग्रस्त और उपेक्षित है। अन्य शब्दों में जिसे हम सर्वहारा वर्ग कहते आए हैं। यह मेहनतकश-वर्ग है। श्रमशीलता इसके खून में है। मेहनत करके पेट भरना अन्यथा भूखों मरते रहना; यह अभी भी इस संस्कार से एक लुटे हुए प्रेमी की तरह चिपटा हुआ है। यह हमारे गरीब देश का उत्पादक-वर्ग है जो अपने ही उत्पादन से महरूम है। यह सबका जीवन-यापन करता है लेकिन इसे जिंदा रहने की सबसे प्राथमिक जरूरते भी उपलब्ध नहीं! यह हमारे समाज का अधिसंख्यक तबका है जो या तो छोटा किसान है, खेतिहर मजदूर है; या अन्य मजदूर है। यह रोज कुआँ खोदता है और पानी पीता है। यह तबका दलित कही जाने वाली जातियों से भरा पड़ा है। इस तबके में ज्यातातर लोग दलित-वर्ग से जुड़े हैं। हम वरिष्ठ कथाकार मुद्राराक्षस के इस अभिमत से सहमत हैं कि 'सवर्णों में बहुसंख्यक समृद्ध होते हैं और थोड़े ही गरीब और दलितों में बहुसंख्यक गरीब होते हैं और बिरले ही कोई समृद्ध होता है।' (सवर्ण साहित्य और दलित प्रश्न : मुद्राराक्षस; तद्भव; सितंबर 1999; पृ. 204)। इसका अर्थ यही तो हुआ कि हमारे यहाँ जो तबका गरीब या सर्वहारा है प्रकारांतर से वह दलित ही है या इसे यों कह लें कि हमारे यहाँ जो दलित हैं, वह सर्वहारा ही है। इस लिहाज से अर्जुन कवि दलित-विमर्श के एक बड़े कवि के रूप में उभरकर सामने आते हैं। उनकी केंद्रीय और सर्वप्रधान चिंता के केंद्र में यही वर्ग है। राज्य, राजनीति तथा मौजूदा समूचे तंत्र ने सिर्फ वोट डालने की छूट इसे दे रखी है; एक ऐसी छूट, ऐसा अधिकार जिसका अब उसके हित में कोई अर्थ नहीं रह गया है। वोट का यानी कि नागरिकीय अधिकार देश की जमीन और आय में अधिकार का प्रस्थान-बिंदु है किंतु जब प्रस्थान-बिंदु सिर्फ एक ठहराव का पर्याय बन गया हो तो आगे का रास्ता तो स्वतः ही जाम मिलेगा :
वोट डाल हक राज में, धन धरती में नाँय।
लेता है देता नहीं, मूरख रखै बनाय।।
अभी पिछले दिनों वर्धा के म.गां.अं.हिं.वि में भारतीय समाज-विज्ञान अकादमी की पैंतालीसवीं कांग्रेस का पाँच दिवसीय आयोजन हुआ था। इसका उद्घाटन श्री लंका के प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक डॉ. ए.टी. आर्यरत्ने ने किया। अपने उद्घाटन-भाषण में एक स्थान पर श्रीलंका के राजनीतिक तंत्र मे नागरिकों को मात्र एक 'वोटर' (मतदाता) में अवघटित कर दिए जाने की स्थिति पर उन्होंने कहा था - 'माई काँन्क्ल्यूजन ऐज फॉर ऐज माई कंट्री इज कंसर्न्ड, इज दैट द पीपल्स फ्रीडम्स हैव बीन टेकन अवे बाई देयर रिप्रेजेंटेटिव्स लीविंग पीपल ऑनली विद द राइट टु एक्सरसाइज देयर वोट वन्स इन अ फ्यू ईयर्स। द सिटीजन्स हैव बीन रिड्यूस्ड टु बी द वोटर्स ऑनली।''
ए.टी. आर्यरत्ने के इस वक्तव्य को अर्जुन कवि के उक्त दोहे (वोट डाल हक राज में...) के साथ मिलाकर पढ़ें तो स्थिति और ज्यादा साफ हो जाती है। लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में नागरिक इसी अवघटन से रू-ब-रू हैं। आश्चर्य यहाँ यह देखकर होता है कि आर्यरत्ने जैसा विद्वान और अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विचारक अपने विद्वत्तापूर्ण भाषण में जिस बात को जिस तरह कह रहा है, लगभग वही बात एकदम उसी लहजे में अपने एक दोहे में हमारे यहाँ का चौथी जमात पास एक दलित कवि भी कह रहा है। जीवनानुभव की शक्तिशालिता शायद यही है।
समकालीन राज्य, राजनीति, शिक्षा एवं अर्थ-व्यवस्थाएँ, न्याय-व्यवस्था, धर्म का ढकोसला और संप्रदायवाद, धर्म और राजनीति का नापाक गठबंधन; इन मुद्दों पर अर्जुन कवि की कलम एक नई धार-धरे चाकू की तरह चलती है। पैमाना वही है : इस महादेश का बहुसंख्यक मेहनतकश आम आदमी। अर्जुन कवि न जाने कितने दोहों में समकालीन राज्य, धर्म, शिक्षा-प्रणाली एवं अर्थ-व्यवस्था पर खुलकर बात करते हैं। शासक-वर्ग एवं हर तरह से शक्ति-संपन्न एवं समर्थ पूँजीपति-वर्ग तो उनके निशाने पर हैं ही; अवसरवादी और हर समय लार टपकाते रहने वाला बीच का आदमी भी बराबर उनकी मार खाता चलता है। बल्कि कई बार तो यही वर्ग सबसे अधिक और बार-बार कवि की तीखी निगाह में रहता है। इस वर्ग में भी कवि की नाराजगी सबसे अधिक उस पढ़े-लिखे मध्य वर्ग से है जो अपनी आत्मग्रस्तता में अब एकदम बेहया हो गया है और सारी मूल्यवत्ता उसने उठाकर ताक पर धर दी है। यह शहरी मध्य-वर्ग है जो उच्च शिक्षा प्राप्त है और जिसमें पर्याप्त विवेक-संपन्नता और ऊर्जा है; लेकिन इसकी शिक्षा, इसका कौशल, इसकी बुद्धिमत्ता और इसकी ऊर्जा ऐसे कामों में खर्च हो रही है जिनका बृहत्तर राष्ट्र-हित या जन-हित से कोई लेना-देना नहीं है। इस मध्य-वर्ग का अपना खुद का हित हालाँकि इससे जरूर सध रहा है लेकिन इससे ज्यादा बड़ा हित इनके कारनामों से शासक और पूँजीपति वर्गों का सध रहा है। इस मध्य वर्ग के मार्फत इस देश का शासक एवं पूँजीपति-वर्ग वह सब-कुछ कर रहा है, जिसे वह करना चाहता है। वह बेखटके अपनी नीतियों को अंजाम दे रहा है। यहाँ अलग से यह बताने की जरूरत नहीं कि इन वर्गों की नीतियाँ और योजनाएँ पूरी तरह जन-विरोधी हैं। मध्य-वर्ग इस जन-विरोधी अभियान में अपना कमीशन लेता हुआ इनके साथ है। वह इनका खुला एजेंट है हालाँकि इसमें से कुछ लोग धीरे-धीरे इस एजेंटशिप से ओनरशिप में भी आते चलते हैं। एजेंटशिप से ओनरशिप में आते ये लोग नवधनाढ्य-वर्ग का निर्माण करते हैं, इन लोगों की मानसिकता तो और भी घौच-पौच है। उसमें ऐसे-ऐसे अंतर्विरोध हैं कि देखने वाले को घिन आती है। अर्जुन कवि इस नवधनाढ्य-वर्ग की भी काफी तीखी खबर लेते हैं। यह सुशिक्षित और संपन्नता की ओर बढ़ता तबका आज की हमारी बहुत सारी राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक आदि समस्याओं और संकटों का उद्गम-स्रोत है। इसका दिमाग और तर्क-शक्ति माहौल को बिगाड़ने में सबसे अधिक योग दे रही हैं -
पढ़े-लिखे हू पागलैं, जातिवाद दें ज्ञान।
मजबवार भगवान हैं, ब्रासत भैम बखान।।
अर्जुन कवि का गुस्सा इनके प्रति दरअसल इसलिए है कि यही वह वर्ग है जो आम जनता के संघर्ष में एक बड़ी भूमिका निभाता आया है और एक कैटेलिक एजेंट के रूप में अपनी गहरी जनोन्मुखता और राष्ट्र-प्रेम का परिचय देता रहा है। इस मध्य-वर्ग से शासक एवं पूँजीपति-वर्ग बहुत भय खाता रहता है और निरंतर उसके सामने नए-नए प्रलोभन और आकर्षण फेंकता रहता है। ये प्रलोभन और आकर्षण उसे बेतरह खींचते हैं लेकिन उसे इन्हीं से अपना बचाव करना होता है। यदि ऐसा नहीं हो पाता तो यह स्थिति इसी के अस्तित्व एवं व्यक्तित्व के लिए एक भारी खतरा बन जाती है। दूसरे की बंदूक के लिए यह एक कंधे की तरह इस्तेमाल किया जाना शुरू हो जाता है और इसकी हैसियत एक यूज एंड थ्रो जैसी जिंस का रूप ले लेती है। हिंदी की समकालीन कविता में- विशेषतः युवा कवियों में - मध्य-वर्ग की यह स्थिति व्यक्त हुई है। कहीं-कहीं इस दुर्नियति का दर्द भी वहाँ दिखाई देता है। आश्चर्य की बात यह है कि इस मामले में अर्जुन कवि एकदम इन युवा कवियों के बगल में खड़े नजर आते हैं। कभी-कभी तो शब्दावली और मुहावरा लगभग एक होता है। मसलन समकालीन युवा कवि बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस करता है कि हमारे यहाँ सामंतवाद का भयावह पुनरुत्थान हुआ है। लोकतंत्र तो एक मुखौटा है। उसके पीछे सामंत-तंत्र सक्रिय है। लोक कल्याणकारी राज्य राजतंत्र का रूप ले चुका है। नवें दशक के लगभग हर कवि में यह पीड़ा हमें मिलेगी। अर्जुन कवि जब अपने देश के मुखिया - प्रधानमंत्री - को संबोधित करके कोई बात कहते हैं - जैसा कि ऐसा दसियों दोहों में उन्होंने किया है - तो उसे 'राजा', 'राजन्' इत्यादि कहकर ही पुकारते हैं। ऐसा बहुत ही स्वाभाविक और स्वतःस्फूर्त तरीके से हुआ है। सोच-विचार हालाँकि इसके पीछे गहरा है लेकिन उद्गार अनायास हैं :
राजन तेरे राज में, हैं बासे कानून।
गाल अमीरों के चढ़े, नहीं दीन कूँ चून।।
वर्तमान राज्य - पक्ष एवं विपक्ष की अधिकांश राजनीति, प्रशासन, पुलिस तथा राज्य के अन्य समस्त अंगोपांग या तो पूँजी की गोद में बैठे हैं या संप्रदायवाद/जातिवाद की। पहले यह हरकत दबे-छुपे होती थी और लोगों को थोड़ी-बहुत हया-शर्म भी थी। कुछ करते थे तो अंदर-ही-अंदर एक अपराध-बोध-सा होता था। अब सबने जैसे इस 'अनाड़ीपन' पर विजय पा ली है! अब खुला खेल फर्रुखाबादी है। अर्जुन कवि इस बेहयाई और वादाखिलाफी की तीखी खबर लेते हैं। हो सकता है, यह दोहे का सरलीकरण का शिल्प हो लेकिन हमारे यहाँ का अनपढ़ आम आदमी दरअसल इसी शिल्प को सबसे पहले और सबसे ज्यादा हृदयंगम करता है। हाँ, सरलीकरण में एक वक्रोक्ति भी है जिसमें कुछ तो विनोद है और कुछ व्यंग्य। हालाँकि अर्जुन कवि विनोद-वृत्ति से नहीं; गहरे क्षोभ और दर्द से रचना-प्रवृत्त होते हैं :
करैं घोषणा वोट लैं, मंत्री और प्रधान।
बिन पूरे झूठे फिरैं, पुलिस न करै चलान।
समकालीन सांप्रदायिक परिदृष्य का इतना बहुविध और गहरा चित्रांकन अर्जुन कवि के दोहों में मिलता है कि आश्चर्य होता है कि कैसे यह कवि; जो किताबी ज्ञान और 'बुद्धिजीविता' से बहुत कुछ अछूता है; इस मसले के बारीक से बारीक रेशे तक अपनी पहुँच बनाए हुए है। हालाँकि कहने को यह भी कहा जा सकता है कि यह कवि चूँकि दलित-वर्ग से जुड़ा हुआ है इसलिए इसे तो संप्रदायवाद का विरोधी होना ही होना है। यह मूर्खतापूर्ण और प्रायोजित तर्क मेरे इस विवेचन में इसलिए आया कि आजकल दलित-विमर्श के नाम पर ऐसी ही पूर्वावधारणाएँ चालू हैं। लेकिन इस तर्क के सहारे मैं इस निष्कर्ष पर जरूर पहुँचता हूँ कि दरअसल यही वह बिंदु है जहाँ से यह कवि अपनी दलित-चेतना को वर्गीय चेतना में ढालता नजर आता है। अर्जुन कवि का यह स्पष्ट मत है कि संप्रदायवाद का एक ही विकल्प है : वर्गीय चेतना। इस चेतना के तहत ही वर्तमान व्यवस्था का सत्य समझ में आ सकता है। इसी चेतना के तहत अर्जुन कवि उस पुरोहित-वर्ग की गरीबी की ओर हमारा व खुद उसका ध्यान खींचते हैं, जो वर्तमान संप्रदायवाद में एक साधन की तरह इस्तेमाल में लाया जा रहा है। ब्राह्मणवाद वर्तमान संप्रदायवाद - विशेषतः हिंदू-संप्रदायवाद - का प्रस्थान-बिंदु है; हालाँकि मंजिल इसकी राजनैतिक सत्ता है। जो हो। लेकिन यह संप्रदायवाद जहाँ से संचालित और प्रायोजित हो रहा है वह देसी-विदेशी पूँजीवाद है जिसकी निगाह में पंडित और चमार दोनों एक हैं। वहाँ पैमाना जाति या वर्ण नहीं, पूँजी है। बाजार जो आज की दुनिया का नाभि-केंद्र है, वहाँ भी पैमाना यही है। अतः वर्ण-भेद वर्ग-भेद में विलुप्त और परावर्तित होना होता ही है। इस लिहाज से, बावजूद इसके कि 'दोनों (ब्राह्मण मजदूर और शूद्र मजदूर) के आर्थिक हित कुछ हद तक समान होने के बावजूद उनकी जिंदगी का बाकी सब कुछ एक-दूसरे का विरोध होता है' (मुद्राराक्षस; वही; पृ. 205) वर्ग-दृष्टि एक व्यापक फलक पर यथार्थ का आकलन करती है। इसी दृष्टि के तहत अर्जुन कवि पुरोहित को एक धार्मिक दिहाड़ी मजदूर समझ कर चलते हैं जिसकी नियति अन्य मजदूरों से भिन्न नहीं हैः
पीड़ित पंडित पीढ़ियाँ, पढ़ि-पढ़ि वेद पुरान।
नहीं महल इनके जिटे, उड़ी फूस की छानि।।
अर्जुन कवि का संप्रदायवाद-विरोधी विमर्श भारतीय आमजन की उस परिपक्व समझ का प्रतीक-प्रतिनिधि है जो लंबी परंपरा से उसके संस्कारों और मानसिकता में गहरे निबद्ध है। परंपरागत रूप से ही भारतीय सांस्कृतिक चिंतन और जीवन-पद्धति में सांप्रदायिक उग्रवाद और फासीवाद सदैव हाशिए पर रहते आए हैं। इन्हें कभी सार्वजनिक मान्यता नहीं मिली। एक निरपवाद सर्वसमावेशीपन, शत्रु एवं विरोधी के भी सकारात्मक तत्वों का आत्मांगीकरण, विचार-विमर्श में ध्रुवांतीय खुलापन इत्यादि हमारी दर्शन-परंपरा के सामान्य तत्व रहे हैं। यही भारतीय मनीषा की सबसे मौलिक पहचान है जिसमें हमारी कृषि-सभ्यता का केंद्रीय योगदान रहा है। भारतीय लोक की किसानी समझ यही है। अर्जुन कवि इसी किसानी समझ के नवीनतम संस्करण के रूप में उभरते दृष्टिगोचर होते हैं। यह नवीनतम किसानी समझ यह जानती है कि मौजूदा सांप्रदायिक शक्तियाँ इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि भारतीय जनता को सीधे-सीधे और तर्क-सिद्धांत के तहत नहीं बरगलाया जा सकता। यह कार्य-योजना तभी पूरी की जा सकती है, जब झूठ, दुष्प्रचार, कुतर्क, विद्वेष, अतिवाद, दोमुँहापन, संवेदनहीनता इत्यादि का सहारा लिया जाए और सुनियोजित रणनीति और षाड्यंत्रिक कूटनीति से काम किया जाए! भारतीय-विशेषतः हिंदू संप्रदायवाद का यह नीवनतम प्ररूप है। इस वास्तविकता से संघर्ष के लिए अन्य बहुत सारी क्षमताओं के साथ आधारभूत रूप से वह किसानी-समझ नितांत अनिवार्य है जो आज भी दूध का दूध और पानी का पानी करने का सामर्थ्य रखती है। इसी किसानी समझ के तहत अर्जुन कवि संप्रदायवादियों के दोमुँहेपन को पकड़ते हैं और उसकी साफ निंदा करते हैं :
दो मुँह बेगम बादशा, खेलैं चार गुलाम।
दो मुँह की भगती चलै, दवा दुआ पैगाम।।20।।
और यही किसानी समझ उन्हें यह अभिज्ञान कराती है कि दुनिया-भर की विभिन्न सांप्रदायिकताएँ अपने तत्व-चरित्र में एक हैं, इनके लक्ष्य और कार्य-योजनाएँ लगभग एक हैं। परस्पर विरोधी सांप्रदायिकताएँ भी ऊपर और अंदर जाकर एक हो जाती हैं। इनका विभेद और वैमनस्य केवल मंच पर है। परदे के पीछे सभी सांप्रदायिक महाबली परस्पर गले मिलते हैं और ठहाके लगाते हैं :
भीतर तौ नैना चलैं, पर्दा अल्ला राम।
दुनिया कूँ दीखै नहीं, बाहर नाटक काम।।
अर्जुन कवि भारतीय आम जनता की रोजमर्रा की समस्याओं, पीड़ाओं, विडंबनाओं, आकांक्षाओं और सपनों को प्राथमिक तौर पर अपनी काव्य-वस्तु बनाते हैं। ऊपर-ऊपर से और मोटे तौर पर यह एक प्रकार का सरलीकरण या फौरीपन लग सकता है लेकिन ऐसा वस्तुतः है नहीं। कई बार ऐसा भी लगता है कि यह कवि पुराने किस्म के नीत्योपदेश की आदत से मजबूर है लेकिन ऐसा भी वस्तुतः नहीं ही है। अर्जुन कवि दोहा-शैली की इन विवशताओं को स्वीकार करते हुए भी इनका अग्रगामी अतिक्रमण करते चलते हैं। ऐसा दरअसल वे इसलिए कर पाए हैं कि इन बहुव्याप्त और मोटी प्रतीत होने वाली सरलीकृत समस्याओं और पीड़ाओं के पीछे इन्हें निर्धारित और निर्दिष्ट करने वाली जो बारीक और गहन षाड्यंत्रिक राजनीतिक, सामाजिकार्थिक व सांस्कृतिक स्थितियाँ हैं उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया की ओर भी उनका बराबर ध्यान रहता है। मसलन हिंदू-समूदाय में नवविवाहिता स्त्रियों - दुल्हनों - को जिंदा जला देने के पीछे सिर्फ वर-पक्ष की अत्यधिक और निरंतर बनी रहने वाली दहेज-लोभिता नहीं है बल्कि इसके मूल में पुरुष-वर्चस्व की वह दुष्ट सामंती मानसिकता भी अंतर्निहित है जिसके तहत स्त्री नगण्यताओं में धकेली जाती रही है। स्त्रियों को जिंदा जला देने की घटनाएँ गत बीस सालों की देन हैं। इधर इसकी आवृत्तियाँ बढ़ी हैं। इसका कारण संभवतः यह है कि स्त्री-समुदाय राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्रों में इधर अपनी उल्लेखनीयता बढ़ाता चला है। इसके प्रभावस्वरूप समस्त स्त्री-जाति में आत्मसम्मान, समानाधिकार चेतना तथा संघर्षशीलता का स्तर सुधरा है। मुझे लगता है, स्त्री-दहन की बढ़ती आवृत्ति के पीछे स्त्री के इन्हीं आगे बढ़ते कदमों को रोकना है। जिंदा जला देने का दुर्द्धर्ष आतंक सामूहिक रूप से व्यापक असर डालता है। यह ठीक वैसे ही है जैसे एक बच्चे की पिटाई कर दो तो सारी क्लास सहम जाती है। अर्जुन कवि अनेक दोहों में यह व्यक्त करते हैं कि स्त्री-दहन की किसी भी घटना के लिए कोई एक व्यक्ति, एक परिवार, कुछ संबंधी-लोग जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि यह समूचा समाज इसके लिए उत्तरदायी है। एक विशेष उल्लेखनीय तथ्य यह है कि; और यह एक महज संयोग नहीं है कि; संप्रदायवाद/तत्ववाद का पुनरुत्थान पिछले बीस सालों की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण परिघटना है। इन बीस सालों में ही विश्व-पूँजीवाद का शिकंजा हम पर कसता है और मुक्त बाजार के मार्फत एक बेहया संस्कृति हमारी रसोई तक घुस आती है। स्त्री-दहन की बढ़ती आवृत्ति के साथ क्या इन परिघटनाओं का कोई अंतर्संबंध नहीं है? मेरी समझ में इनमें आपस में बहुत ही गहरा संबंध है। बहुत सारे श्रेष्ठ/नैतिक मूल्यों के अंत की घोषणा सर्वग्रासी रही है। दांपत्य भी इससे अछूता नहीं रहा। आज स्त्री-पुरुष-संबंध अधिकांशतः पूँजी द्वारा निर्धारित-निर्देशित हो रहे हैं। कहते हैं कि नवयुवती (दुल्हन) के प्रति नवयुवक (दूल्हा) में एक स्वाभाविक आकर्षण एवं समर्पण होता है; होना चाहिए। लेकिन लावण्य, प्रेम, त्याग इत्यादि का स्थान आज वस्तु-लोभ ने ले लिया है। प्रेम है लेकिन वह केवल 'यूज एंड थ्रो' जैसी वस्तु बन गई है :
पिया पपइया ना रहे, प्रेम पाप का भौत।
पइसा के संग प्रीत है, ना पा, लाडी मौत।।
अर्जुन कवि का निष्कर्ष है कि समूची मौजूदा व्यवस्था जन-विरोधी है। पहले यह तथ्य दबा-ढँका और अस्पष्ट था लेकिन अब पूरी तरह साफ हो गया है और सतह पर आ गया है। जो लोग इस राज्य को संचालित कर रहे हैं वे और जो इससे शासित हैं वे दोनों ही यह साफ-साफ समझ गए हैं कि राज्य अब कल्याणकारी नहीं रहा। यह तो हुआ ही है लेकिन इससे भी खतरनाक बात यह हुई है कि अधिकांश लोग इस बात पर अब लगभग एकमत हैं कि राज्य कल्याणकारी नहीं हो सकता, नहीं होता; उसे ऐसा नहीं होना चाहिए! यह सोच नई विश्व-अर्थ-व्यवस्था और नए विश्व-पूँजीवादी अर्थशास्त्र का असर है। अर्जुन कवि अपने कई दोहों में इस शताब्दी के अंत की इस सबसे अमानवीय परिघटना का तीखे शब्दों में उल्लेख करते हैं। इस नए अर्थ-चिंतन ने लगभग सारी नैतिकता, मूल्यवत्ता, मनुष्यता खा ली है। न केवल हमारे यहाँ बल्कि सारी दुनिया में ही - विशेषतः गरीब देशों में - नए अर्थ-तंत्र ने यही कमाल किया है :
रुपिया में धरती समा, अल्ला राम समाय।
राज मजब विद्या विधी, दुनिया चक्कर खाय।।
अर्जुन कवि का यह स्पष्ट अभिमत है कि इस देश के गरीब/आम आदमी के लिए आजादी का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है। कुछ समय पहले आजादी की स्वर्ण-जयंती मनाई गई। साठ साल पहले अमीर-गरीब के बीच भेद की जिस अवधारणा के बीज बोए गए थे वे अब छतनार पेड़ का रूप ले चुके हैं। आजादी का अर्थ अमीर एवं गरीब के लिए आज एकदम अलग-अलग है। कवि बहुत क्षुब्ध होकर इस स्थिति का मखौल उड़ाता है :
बँटी अमीर गरीब कूँ, भेद-भाव कछु नाय।
आजादी पिक्चर चली, देखौ सब सुख पाय।।
आजादी की स्वर्ण-जयंती के भब्भड़ में यह एकदम भुला ही दिया गया कि इस देश का अधिसंख्या आम आदमी आज किस कदर बदहाल है। इस देश के आम आदमी ने स्वर्ण-जयंती के इस जलजले को भौंचक होकर देखा :
आजादी आँधी चली, हवा दीन तक नाय।
दिन सूरज की धूप में, राति राति में जाय।।
सच तो यह है कि इस पूरी अवधि में गरीब/आम आदमी को महसूस ही नहीं हुआ कि आजादी किस चिड़िया का नाम है :
अर्जुन राजन राज में, आजादी क्या चीज।
चाखी नहीं गरीब नैं, देखा कभी न बीज।।
और, ऐसा दरअसल इसलिए हुआ कि लंबे संघर्ष के बाद आजादी/देश की बागडोर जिन लोगों के हाथ में आई उनके इरादे नेक नहीं थे :
उड़ि गए हंसा राज के, आजादी दिलवाय।
रह गए बगुला तीर पै, राजतिलक करवाय।।
अर्जुन कवि दोहा लिखते नहीं, कहते हैं। हर दोहे को देखकर लगता है कि उनके ऐन सामने श्रोता के रूप में कोई-न-कोई उपस्थित है और उसे संबोधित करते हुए, उससे संवाद-सा करते हुए वे अपनी बात रख रहे हैं। कोई-न-कोई घटना-प्रसंग, जीवन-स्थिति हर दोहे में, हर दोहे के पीछे विन्यस्त है। अर्जुन कवि का मानना दरअसल यह है कि श्रोता या पाठक कवि की रचना-प्रक्रिया का एक अनिवार्य उपागम है। एक प्रभावशाली और सार्थक काव्य-रचना तभी संभव है जब श्रोता या पाठक यानी कि रचना का अधिगम सुनिश्चित हो :
श्रोता हाथीवान है, कवियाँ हाथी जानि।
कमी ज्ञान की का रही, बैठ पीठ दे ज्ञान।।
संक्षिप्तता या कि सारगर्भितता दोहे का एक परंपरागत गुण है। अर्जुन कवि दोहे की इस लोक-शक्ति को नए सिरे से आत्मसात करते हैं। दोहा कहना उनके लिए कोई शगल नहीं है। वे दोहा लिखकर कोई खानापूर्ति या मात्र आत्माभिव्यक्ति नहीं करते बल्कि यह उनके लिए उनकी वैचारिक अस्मिता का, जीवन-संघर्ष का, अपनी मानवीय सार्थकता का प्रश्न है इसलिए दोहे की संक्षिप्तता से वे व्यापक और विशद विचार-विमर्श का काम लेते हैं। दोहे के दो अक्षरों में सौ तरह का ज्ञान छुपा रहता है और; न केवल ज्ञान बल्कि वैचारिक विमर्श की एक अंतहीन प्रक्रिया भी; जिसका संबंध सीधे-सीधे हमारे समकालीन दैनंदिन जीवन से है -
कागज कम स्याही लगै, दोहा समय न लेत।
दो अक्षर सौ ज्ञान है, लंबी बुद्धी देत।।
इस लंबी बुद्धि में जीवन के प्रति समग्रतामूलक दृष्टि और प्रबंधात्मक शिल्प अंतर्निहित हैं। आभिजात्य को अंदर से तोड़ता यह शिल्प जनाकांक्षा के अनुरूप ही है।
अर्जुन कवि के दोहों में जाती हुई/बदलती हुई सदी अपने पूरे दुखांत के साथ झलक भरती है। अनेकानेक अंतर्देशीय और अंतरराष्ट्रीय घटना-क्रम उनके दोहों की पृष्ठभूमि निर्मित करते चलते हैं। सांप्रदायिकता भी इनमें से एक है। सांप्रदायिकता का नया चेहरा यहाँ स्पष्ट हमें दिखाई देता है। धर्म और राजनीति का सत्तोन्मुखी-फासीवादी-गठजोड़ कवि के गुस्से और क्षोभ और व्यंग्य-प्रहार का निरंतर पात्र बनता है। अर्जुन कवि का मानना है कि हमारे यहाँ की सांप्रदायिकता विश्व-स्तर पर नए सिरे से इधर उभरी भीषण सांप्रदायिकता के क्रम में ही है। आज दुनियाभर में संप्रदायवाद/नस्लवाद का नवोत्थान हुआ है। कहीं कोई प्रभुत्वशाली है तो कहीं कोई। हर जगह धर्म/जाति/नस्ल के मार्फत इसने राज्य को अपने शिकंजे में कस रखा है। लगता तो यह है कि आज मनुष्यता पर सांप्रदायिकता हावी है और राज्य की इस मामले में बड़ी गहन भूमिका है -
अर्जुन देस-बिदेस में, नहीं मनख कौ राज।
हिंदू ईसाई मियाँ के सिर मिलते ताज।।
अर्जुन कवि विश्व-सर्वहारावाद के हिमायती हैं। उनका स्पष्ट मानना है कि मेहनतकश-वर्ग आज दुनिया-भर में प्रायः एक-जैसी स्थितियों में जी रहा है। उसकी दारुणताएँ, उसके अभाव, उसका शोषण, उस पर अन्याय-अत्याचार प्रायः एक-जैसे हैं। आज विश्व-स्तर पर पूँजीवाद का वर्चस्व है। यह पूँजीवाद एक नए रूप में अवतरित हुआ है। इसने अपने इस नए संस्करण में अपने-आप को दुनिया का एकमात्र उद्धारक और विकल्प उद्घोषित किया है। यह मनुष्यता का नेतृत्व करने का दम भर रहा है लेकिन इसके हाथ में जो मशाल है वह किसी मनुष्योचित क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए नहीं अपितु अपने पीछे चलने वालों को अपनी आग में स्वाहा करने के लिए धारण की गई है -
लगी आग संसार में, अर्जुन कौन बुझाय।
दौलत हाथ मशाल है, दुनिया पजरत जाय।।
यह पजरती हुई दुनिया वस्तुतः वह मेहनतकश तबका है जो आज भी अपने ईमानदार और मूल्यनिष्ठ श्रम द्वारा अपना पेट भरने का अभ्यस्त है। इस तबके को निरंतर उसके बद्धमूल स्वभाव और विचार से विचलित करने का षड्यंत्र विश्व-स्तर पर जारी है। इसे मध्यवर्गीय बेहयाई में गर्क कर देने की महायोजनाएँ सक्रिय हैं।
वस्तुतः पूँजीवाद और नस्लवाद; समकालीन विश्व की ये दो ऐसी समस्याएँ हैं जिनका कोई हल किसी को फिलहाल दिखाई नहीं दे रहा है। ये एक-दूसरे के गलबाँही डाले मदमाती चाल से किसी आततायी सेना की तरह फसलों, जंगलों, बाग-बगीचों, आबादियों को उजाड़ते, ठूँठ बनाते चल रहे हैं। एक समय था जब इसी शताब्दी में इन दोनों ने जबरदस्त मुँह की खाई थी। समाजवादी विकल्प ने इन्हें अपने दड़बों में खदेड़ दिया था; लेकिन यकायक इतिहास ने पलटा खाया और इन्होंने चोर दरवाजों से मनुष्यता पर धावा बोल दिया। हालाँकि यह सच है कि इस शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि - समाजवाद - एकाएक धूल-धूसरित नहीं हो गई। इसकी एक लंबी प्रक्रिया अंदर-ही-अंदर चली है और इसके खतरे इसके अंदर से ही पैदा हुए थे। ख्रुश्चेव से लेकर ब्रेझनेव तक यह प्रक्रिया चली है। गोर्बाचेव ने इसमें अंतिम आहुति दी। लेकिन हम यहाँ इस प्रक्रिया से ज्यादा उस प्रक्रिया की बात कर रहे हैं जो किसी रॉकेट की गति से सारी दुनिया में कुछ इस तरह फैली कि बस; आ गया, आ गया, दुनिया का एक मात्र मसीहा आ गया! जो इसे ढोक देगा उसका उद्धार होगा, जो नहीं देगा; उसे देखा जाएगा! जिन्होंने ढोक नहीं दी उन्हें अच्छी तरह देखा गया (वियतनाम, इराक, इंडोनेशिया) लेकिन जिन्होंने ढोक दी; वे भी कौन अपनी संप्रभुता, आत्म-निर्भरता, अपना खुद का विकास-मॉडल (स्वदेशीपन) बचा पाए! बीसवीं सदी का उतार भाषा को उसकी क्रूरतम हदों तक ले आया है। एक ऐसी ठंडी- लेकिन अंदर से उतनी ही ज्वलनशील और विस्फोटक - हिंसा और क्रूरता कि आदमी त्राहि-त्राहि कर उठे :
खीर खून में पक रही, चढ़ा विश्व का देग।
जातिवाद भट्टी जलै, मनख मनख खा सेक।।
जग में जातीवाद की, गहरी खुदी सुरंग।
दौलत दानामिल्ट-सी, दुनिया फुँकै कुसंग।।
वित्तीय पूँजीवाद, खुली बाजार-व्यवस्था, अंतरराष्ट्रीय पूँजीवाद (बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ) इत्यादि हमारे समय की - बीती हुई सदी की - कुछ ऐसी अपरिहार्यताएँ हैं जिन पर हमारा - हमारे देश की जनता और शासक-वर्ग दोनों का ही - कोई वश नहीं। इस जंगल की राह हमारे यहाँ बहुत पहले से बनना शुरू हो गई थी। मोटे तौर पर राजीव गांधी के समय से। इक्कीसवीं सदी का जो नारा उन्होंने आते ही दिया उसका नतीजा यह हुआ कि हम अपने घर को खुला और लापरवाह छोड़ बाहर को बगटूट भागे और बाद में जब कभी हमें उसकी याद आई तब तक उस पर न जाने किस-किस का कब्जा हो चुका था। हमारी स्थिति बहुत-कुछ एक ऐसे आदमी जैसी हो गई जो अपने ही घर में दूसरों का मेहमान हो जाता है। अपनी जड़ों से कटे हुए आदमी की तरह एक जबर्दस्त राष्ट्र-हीनता की चपेट में आते चले गए हम। यह राष्ट्रहीनता समकालीन भारतीय युवा-पीढ़ी में चरम पर है। अर्जुन कवि ने भरपूर इसकी खबर ली है। इस पीढ़ी को अपने राष्ट्र से जैसे कोई लेना-देना ही नहीं है। अन्य लोग भी इससे संक्रमित हुए हैं। स्थिति अब यह हो गई है कि हमारी राजनीति, धर्म, शिक्षा इत्यादि सब-कुछ इस नई पूँजी के चंगुल में फँस गया है :
धन खाता है राज कूँ, निगल मजब कूँ जाय।
विद्या कूँ बकसै नहीं, नहीं मनख बचि पाय।।
कवि का मानना है कि इस नई पूँजी का अंतिम प्रभाव होगा एक ऐसा विश्व जिसमें मनुष्यता ढूँढे न मिलेगी। हर जगह उसकी हत्याएँ होंगी और वह प्राणों की भीख माँगेगी; लेकिन कोई बचाने वाला पैदा नहीं होगा!
अर्जुन कवि इस नए पूँजीवाद का, इसे आगे बढ़ाने और व्याख्यायित करने वाले अर्थशास्त्र का विरोध करते हैं। अर्जुन कवि वित्तीय पूँजी का विरोध अपनी उसी देशज शैली में करते हैं जो उनका अपना स्वभाव है। कहते हैं; पूँजी के लिए या पूँजी के द्वारा पूँजी; जैसे कि पूँजी कोई खाद्य पदार्थ हो! पूँजी वस्तु-विनिमय के लिए होती थी, यह तो फिर भी ठीक था पर अब पूँजी के बदले पूँजी; यह बिल्कुल वैसी ही बात होगी; जैसे कोई अंडौरा के पेड़ पर बैंगन उगाना चाहे :
अर्थशास्त्र के आदमी, बचे आदमी नायँ।
दौलत कौ भोजन नहीं, अंड भटा लटकायँ।।
यह पूँजी अंततः मनुष्यता का ही भक्षण करेगी, यह तय है। इसकी प्रकृति उस साँप जैसी है जो मरे आदमी को भी कब्र में जाकर काटता है और समझता है कि बदला ले लिया :
अर्जुन पूँजीवादी तौ, विषधर की संतान।
दौलत को खाता नहीं, खाय कबर इनसान।।
अर्जुन कवि भी एकध्रुवीय विश्व की वकालत करते हैं। हालाँकि उनकी यह एकध्रुवीयता इस उत्तर-आधुनिक पूँजीवादी-साम्राज्यवादी एकध्रुवीयता से एकदम उलट और दूसरे छोर पर है। अर्जुन कवि की यह एकध्रुवीयता वर्तमान मनुष्य-विरोधी पूँजीवादी-साम्राज्यवादी एकध्रुवीयता का जैसे एक संभावनाशील विकल्प है; गो कि इसकी संभावना मौजूदा समय को देखते हुए काफी संदिग्ध है। लेकिन स्वप्न देखना भी तो एक कवि का ही काम है। इससे कम-से-कम एक ढाँढ़स तो बँधा रहता है। हो-न-हो, ऐसी सँभावनाएँ कभी बन ही जाएँ।
अर्जुन कवि की यह वैश्विक एकध्रुवीयता स्पृहणीय है। दुनिया के हर बड़े साहित्यकार ने दुनिया को लेकर हमेशा से ही यह स्वप्न देखा है। यह स्वप्न हालाँकि अभी तक पूरा नहीं हआ लेकिन यदि कभी पूरा हुआ और इसके हिसाब से दुनिया पुनर्व्यवस्थित हुई तो मनुष्य को उन बहुत सारी मानवकृत समस्याओं और भीषणताओं से मुक्ति मिल सकती है जो रंग, नस्ल, धर्म, जाति इत्यादि के विभेद और वैमनस्य से पैदा हुई हैं। युद्ध इन सब विभेदों की चरम परिणति हुआ करती है। और, युद्ध से मनुष्यता का लाभ कब हुआ है?
अर्जुन कवि की इस वैश्विक एकध्रुवीतया का आधार-सूत्र है - मनुष्य! इसका संदर्भ है - प्रकृति। इसका स्रोत है - आदिम समाजवाद। तो मतलब यह कि प्रकृति ने यह धरती पैदा की और धरती ने मनुष्य। प्रकृति ने धरती का राजनैतिक नक्शा नहीं बनाया। इसे बनाया मनुष्य ने और धरती को और मनुष्य को देशों में बाँट दिया। हो सकता है, समाज को व्यवस्थित और विकसित करने के उद्देश्य से ऐसा किया गया हो किंतु आगे जो इसके परिणाम हुए वे कुछ व्यक्तियों या व्यक्ति-समूहों की सर्वसत्तावादी महत्त्वाकांक्षाओं का इतिहास ही कहा जा सकता है। इस सर्वसत्तावादी राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने और आगे चलकर धर्म, संस्कृति, जाति, नस्ल को भी अपनी विभेदवादी मंशाओं में हथियार की तरह इस्तेमाल किया और एक ऐसे विश्व की रचना धीरे-धीरे होती चली गई जिसमें एक समुदाय, जाति, धर्म, देश के हित दूसरे समुदाय, जाति, धर्म, देश के अहित बन गए। परिणाम हुआ - युद्ध, दंगा, हिंसा, बलात्कार, षड्यंत्र, धोखा, शोषण, अन्याय, अत्याचार, झूठ, फरेब, चालाकी इत्यादि-इत्यादि। यानी कि मनुष्यता का अधिक-से-अधिक निषेध और नकार! और गजब यह कि दुनिया इसी रास्ते पर आगे बढ़ती चली गई! इस इतिहास या विकास-क्रम का सबसे ज्यादा खामियाजा उस गरीब और सर्वहारा तबके ने भुगता जो इसी मनुष्य-कृत राजनीतिक, सामाजिकार्थिक व्यवस्था से उपजा था। बीसवीं शताब्दी के मध्य में कुछ देशों में हुई समाजवादी क्रांतियों से इस वर्ग को खुशहाली की थोड़ी उम्मीद और अनुभव हुए थे। किंतु पुनः उसी सर्वसत्तावादी-साम्राज्यवादी-राजनीति और अर्थ-व्यवस्था ने अपनी आठों भुजाएँ फैलाईं और इन्हें अपने सर्वग्रासी शिकंजे में कस लिया। धर्म और अध्यात्म भी इसी राजनीति की चरण-चंपी करता रहा! अर्जुन कवि गहरी पीड़ा के साथ मनुष्य के इस जन-विरोधी इतिहास को कुछ इस तरह समेटते हैं -
भोगी बीस सताबदी, पैगंबर अवतार।
फरक दीन कूँ का पर्यौ, राजन भए हजार।।
इस तथ्य को यहाँ एक बार फिर दोहराने की जरूरत है कि अर्जुन कवि विश्व-सर्वहारावाद के समर्थक हैं। उनका विचार है कि आज की दुनिया में - इस पूँजीवादी व्यवस्था में - दुनिया के लगभग हर देश में मेहनतकश-वर्ग की स्थितियाँ एक-जैसी दारुण और अमानवीय हैं। वे एक-जैसे दुष्चक्र में फँसे हैं। हो सकता है, कुछ संपन्न देशों में वहाँ के मजदूरों की स्थितियाँ बेहतर हों लेकिन वहाँ की राष्ट्रीय मुख्यधारा में फिर भी उन्हें वह महत्व का दर्जा हासिल नहीं है जो एक जनतांत्रिक प्रणाली में होना चाहिए। अर्जुन कवि अपने इस विश्व-सर्वहारावाद का आधार ग्रहण करते हुए एक ऐसे एकध्रुवीय विश्व की कल्पना करते हैं जहाँ धर्म, जाति, संप्रदाय, नस्ल इत्यादि का कोई भेद नहीं रहेगा। देशों की राजनीतिक सीमाएँ या तो होंगी ही नहीं और अगर होंगी भी तो केवल आंतरिक व्यवस्था के सुचारु संपादन के लिए। हालाँकि इन आंतरिक व्यवस्थाओं का लक्ष्य भी वही विश्व-मानवता होगी। यह संभवतः वही विश्व-मानवता है जिसकी कल्पना मार्क्स-एंगेल्स ने की कि जब पूरे विश्व में, सभी छोटे-बड़े देशों में साम्यवाद स्थापित हो जाएगा तो मनुष्य एक बिल्कुल ही नई जमीन पर होगा। इस साम्यवादी विश्व में या विश्व-साम्यवाद में मनुष्य वास्तव में एक मनुष्य होगा! क्या यह बिल्कुल ही लालबुझक्कड़पन है या मुंगेरीलाल का हसीन सपना जो सिर्फ देखने के लिए होता है? जो हो, लेकिन अर्जुन कवि इस पर दृढ़ हैं और पूरे आत्मविश्वास से अपनी बात कहते हैं -
सब धरती के गाँव के, कोउ न देस-बिदेस।
सबकी मानव कौम है, दे कुदरत प्रवेश।।
विश्व-भाव सब ते बड़ौ, बचै मनख बिसराम।
देश-भाव छोटे परैं, लड़ैं मरैं चौं ठाम।।
कुदरत नैं धरती रची, लिखा न हिंदुस्तान।
ना अमरीका रूस है, ना ही पाकिस्तान।।
देस-बिदेस कलेस हैं, सीमित तोता ज्ञान।
हंसा तौ ऊँचे उड़ैं, अपनौ गिनैं जहान।।
देशवाद यों जानिए, अल्ला राम अनेक।
विश्ववाद की भावना, जग में कुदरत एक।।
धरती एकई देस है, देस घने दुर्गंध।
खाई या संसार में, सुख नैं तो सौगंध।।
देशवाद के नाम पै, पेटवाद अभियान।
नहीं गरीबों को मिलै, भोजन वस्त्र मकान।।
जहाँ तक धर्म की बात है तो दुनिया में तीन धर्म सबसे व्यापक हैं - इस्लाम, ईसाइयत और हिंदू। यों, बौद्ध धर्म भी काफी विस्तृत है। अर्जुन कवि कहते हैं कि इन सारे ही धर्मों की सर्वश्रेष्ठ प्रवृत्तियों और उपलब्धियों को मिलाकर एक समेकित धर्म बनाया जाए! यह समेकित धर्म अपने सार-तत्व मे उसी विश्व-मानवतावाद का प्रवक्ता या संवाहक होगा जिसकी बात ऊपर की गई। यह 'कृण्वन्तों विश्वमार्यम्' या ऐसी ही कोई और मुहिम चलाने के स्थान पर केवल एक मुहिम चलाएगा - कृण्वन्तो विश्वं मनुष्यम्।' कवि यादृच्छिक तरीके से अंगों का चुनाव करते हुए विभिन्न धर्मों से मिलकर बने इस नए धर्म के चेहरे का रूपक बाँधता है -
कान मुहम्मद के बना, ईसा आँख लगाय।
नाक राम की काम दे, मिल चेहरा चमकाय।।
इस धर्म में ईश्वर का कहीं कोई अस्तित्व या हस्तक्षेप नहीं है क्योंकि ईश्वर के बारे में तो कवि ने पहले ही यह घोषित कर रखा है कि ईश्वर तो बहुत बाद की पैदाइश है। वह वास्तव में है नहीं। इस संसार के केंद्र में मनुष्य है। मनुष्य को प्रकृति ने पैदा किया लेकिन बाद में कुछ निहित स्वार्थियों ने यह श्रेय ईश्वर के नाम कर दिया। यह ठीक वैसा ही झूठ है, जिसे फासीवाद में बार-बार दुहराए जाने पर सच बना दिया जाता है; हालाँकि वस्तुतः फिर भी रहता वह झूठ ही है। कवि ने लिखा -
पहलैं जनमै आदमी, समझ कुदरती काम
बाद नाम भगवान का रख, फैला पैगाम।।
इस जमाने में और इस इलाके में और सबसे बड़ी बात; इस भाषा में यह बात कहना सचमुच साहस का काम है। यह साहस एक जन-निष्ठ कवि में ही हो सकता है।
इस क्रम में, फिलहाल, एक बात और। और वह यह कि मनुष्यता की परीक्षा की सबसे पहली और बड़ी कसौटी है परिवार। मनुष्यता की प्रशिक्षा की सबसे बड़ी पाठशाला भी यही है। यही वह सबसे महत्वपूर्ण मोर्चा है, जहाँ मनुष्यता की जीत या हार होती है। आगे की चीजें यहीं से तह होती हैं। अतः कवि का आग्रह है कि सबसे अधिक ध्यान इसी पर केंद्रित किया जाए। रूपक बाँधने में अर्जुन कवि अच्छे-अच्छे कवियों से टक्कर ले सकते हैं। हालाँकि इन रूपकों में शास्त्रीय से ज्यादा कवि का देशज-किसानी-स्वभाव अपनी झलक मारता है। इसी तरह का एक रूपक यह भी है -
अर्जुन धरती माँ मिली, सूरज पितृ प्यार।
चंदा लाला गोद में, चमकै सब संसार।।